मनुष्य की अर्हता





मनुष्य ने खो दी

मनुष्य होने की 

अर्हताएँ-


ये अर्हताएँ

दब चुकी है

एक विशाल पर्वत की

तलहटी में-


जिस पर्वत की

चोटी पर

नृत्य कर रहे है

क्रोध, इर्ष्या, भय

राग-द्वेष और मैं। 


उस पर्वत की चोटी

इतनी अधिक वजनदार

हो गयी है-

जिसके भार से

मनुष्य होने की

समस्त अर्हताएँ

इतनी नीचे

धँस चुकी है

जिनको उठाना

असंभव प्रतीत होता है। 


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