यौन-संस्कृति और आधुनिकता का बढ़ता क्षेत्र- कपिल कुमार

 


वर्तमान पीढ़ी कामुकता एवं प्रेम में अंतर स्पष्ट नही कर पा रही है, वह व्यभिचार को भी संस्कृति का हिस्सा समझने लगी है।  वह कामुकता को ही प्रेम समझ बैठी है, उसके अंदर बैठी कामुकता ने उसको पशुओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है। प्राचीनकाल से ही मनुष्य ने जिस सभ्य अवस्था को प्राप्त करने में जी तोड़ मेहनत की, आधुनिकता ने उसकी पिछले बीस वर्षों में या 21वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में ही इसकी धज्जियाँ उड़ा दी है। किसी व्यक्ति के अंदर यौन भावना का जाग्रत होना तथा उसका संभोग के द्वारा ही दमन करना एकमात्र उपाय नही है।  सम्भोग के द्वारा उसका दमन करना अंतिम अवस्था है अर्थात  यह तो अल्पावधि में भावना को रोकना है, इसके पूर्व की विभिन्न अवस्थाएँ हो सकती है।  

अभी तो आधुनिकता अपनी प्रारंभिक अवस्था में है।  सामाजिक विचारकों को अभी तो उस सामाजिक-माइक्रोस्कोप की खोज करनी है, जो यह निर्धारित कर सके कि यौन-संस्कृति एक विकसित समाज का निर्माण करेगी या लम्पट समाज का । दिन-प्रतिदिन लोगों की  यौन सम्बन्धी-क्रियाओ में बढ़ती रूचि कहीं यौन-संकट तो उत्पन्न नही कर देगी।

सिनेमा जगत के कलाकारों पटकथा लेखकों , निर्देशकों इत्यादि को समाज प्रतिष्ठित एवं इलीट वर्ग की  श्रेणी में रखता है, परन्तु प्रसिद्धि और पैसों कि भूख  ने इनके विवेक को ख़त्म कर दिया है।  वे लोग इस बात का निर्णय करने में असफल हो रहे है कि समाज के सामने क्या पेश करना है या नही। सही या गलत का निर्णय करने के लिए सेंसर बोर्ड कि आवश्यकता पड़ रही है। और जिस फूहड़ता को सिनेमा अपने पर्दे पर नही उकेर पाया, ओटीटी ने उसको पिछले पाँच-: वर्षों में बड़ी तीव्रता के साथ समाज के सामने पेश कर दिया है।

मनुष्य सबसे अधिक विवेकशील प्राणी है, परन्तु उसके अंदर घर कर बैठी वासना ने उसको अल्प-विवेकी बना दिया है। अपने अंदर उठे भावों का वह शीघ्र ही  दमन करना चाहता है।  चिंता का विषय यह है कि जिस उम्र में बच्चों को यौन-शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए, उस उम्र में वे बिना किसी सुरक्षा के यौन कार्यों में संलिप्त हो रहे है।


सर्वविदित तथ्य है कि कोई भी समाज स्थिर नही है एवं इतिहास स्वयं को दोहराता  है ।  कही आधुनिक समाज के परिप्रेक्ष्य में कहीं हम इतिहास को दोहराने तो नही जा रहे, हम आदिम या बर्बर युग में तो प्रवेश नही कर रहे । हम कहीं टैबू समाजों का तो निर्माण नही कर रहे।  आधुनिक समाजों का निर्माण वहां के नागरिकों की जान पर खेलकर हो रहा है।  आधुनिक समाज अभी तो यह ही निर्धारित नही कर पा रहा है कि उसके लिए क्या आवश्यक है क्या नही। कभी तो वह एकांत चाहने लगता है, कभी वह स्वयं को शोर शराबे के बीच ख़ुश रहता हैं।   

पूर्व-आधुनिक समाजों के द्वारा स्थापित रीति-रिवाज, कानून या रिवाज एक लम्बे समय का परिणाम है। आदिम या बर्बर समाज को यह जानने में कई शताब्दियाँ लग गयी कि यौन-सम्बन्ध का स्वरुप मानव के लिए अलग है और पशुओं के लिए अलग।  ऐसा नही है कि वैज्ञानिक युग तीन-चार सौ वर्षों से ही आया है, प्रत्येक युग वैज्ञानिक युग रहा है, जब मनुष्य ने पहली बार नग्न शरीर पर पत्ते ढके थे तो वह भी अपने आप में एक खोज थी।  आधुनिक  समाजों ने नैतिक अशुभ को भी सगुणों कि श्रेणी में रख दिया है।

कहते है कि अज्ञान से उत्पन्न अन्धविश्वास भी मानव समाज में व्याप्त दुःख का एक सबसे बड़ा कारण है।  प्रथम विश्व युद्ध में नरसंहार या द्वितीय विश्व युद्ध में परमाणु बम का गिराना, यह कृत्य तो दोनों पक्षों के बुद्धिजीवी वर्गों के द्वारा किया गया था। अभी समाज को उस सामाजिक चश्में के अविष्कार की आवश्यकता है, जो किसी भी सामाजिक कृत्य को सही या गलत सिद्ध कर सके।  क्योंकि मानव किसी भी कृत्य को पूर्णत: सही या गलत सिद्ध करने में असफल रहा है।  विश्व का एक धड़ा युद्धों का घोर विरोध करता है जबकि दूसरा धड़ा उसमें बड़ी रूचि के साथ भाग ले रहा है। 

एक तरफ आधुनिक समाजों ने पूर्व-आधुनिक समाजों की आलोचना यह कहकर की है कि उन समाजों में महिलाओं कि स्थिति काफी दयनीय थी , परन्तु उसके विपरीत आज के आधुनिक समाजों  में महिलाओं कि स्थिति ओर भी दयनीय है।  पूर्व की अपेक्षा वर्तमान में महिलाओं की वैश्यवृत्ति जैसे कृत्यों में संलिप्ता बढ़ीं है।  रेड लाइट एरिया अब सिर्फ बड़े-बड़े शहरों तक ही सीमित नहीं रहे है, अपितु इनकी पहुँच छोटे-छोटे नगरों को भी अपनी चपेट में ले रही है।  चिंता का विषय यह है कि जहाँ इनको बंद कमरों में जगह नहीं मिलती , वहां ये खुले आसमान के नीचे शहरों में पड़े जंगलों में खुलेआम अपनी गतिविधियां बढ़ा रहे है। 

अंतत: यह कह देना कि आधुनिक समाज पूर्णत: विकसित समाज है, बिल्कुल गलत होगा।  पूर्व-आधुनिक समाजों में मानव मानसिक एवं शारीरिक रूप से मजबूत था।  किन्तु आधुनिक समाजों  में मानव तकनीकी रूप से तो विकसित हुआ है, परन्तु शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमजोर हुआ है।  आधुनिक समाजों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि मानव तकनिकी रूप से मजबूत होने के साथ साथ मानसिक एवं शारीरिक रूप से भी सशक्त रहे।  

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