प्रथम चोका

 1

झोली में भर

लाखों दुख ही दुख

दौड़ती रही

वनों के बीचोंबीच

गाँव-सिवाने

शहरों के देखती

नए रिवाज

बदलते रहते

ऋतु के साथ

मौसम का मिजाज

ज्यों दिन-प्रतिदिन। 

2

गाँव-सिवाने

बाट में खड़े हुए

नदी के पास

जल्दी जीवित होगी

भरेगी साँस

प्राण-रहित नदी

दौड़ेगी फ़िर

नये उत्साह लेके

स्थापित होंगे

ऋषियों के आश्रम

बैठ तटों पे

फिर लिखी जायेगी

वेदों की ऋचा

स्वयं बैठ लिखेंगे

महर्षि वेदव्यास। 

3

बेचैन होके

मन बैठा व्याकुल

कुछ दिनों से

दिल से अंतर्द्वंद्व

खींच रहा हूँ

धरती पे लकीरें

बन जाती है

ये तुम्हारी तस्वीरें

भावुक होके

आँसू से रँग भरे

बनती यह

बड़ी चित्ताकर्षक

कोशिश यहीं

तोड़ दे अंतर्द्वंद्व

ये मन धीरे-धीरे। 

4

गुलमोहर

अकेले खड़ा हुआ

तोड़ रहा था

दोपहरी का दर्प

चुनौती देता

लाल वस्त्र पहन

धूप को सीधे

सिर से ऐड़ी तक

स्वेद में भीगे

गगन ने खूब की

आग-बौछार

साँझ ढ़ली पे माने

रवि अपनी हार। 

5

कहते नही

किस्से नए-पुराने

भूल के बैठे

रिश्तें गाँव-सिवाने

चौपालें खाली

सुनें हवामहल

अकेले तापे

अलाव पे आदमी

घास फूस के

आँगन में छप्पर

विलुप्त हुए

गाँव ढूँढते स्नेह

ज्यों सूखी धरा मेह। 

6

फैलाएँ बाहें

स्वागत करने को

खड़े चौराहें

लेके रँग-बिरँगे

सिग्नल फूल

बदलते रहते

रूप-स्वरूप

हरा देख दौड़ते

बड़ी तेजी से

पीछे लगे ज्यों चोर

फ़िर हो जाता

क्षणिक पीला जर्द

कभी तो लाल सुर्ख़। 

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