शहर और गाँव
जब से शहर आया मेरे गाँवो में मैंने क्या-क्या खोया है
सबसे पहले मैंने खोया उन मांझी वाली पतवारों को
घास फूस के छप्पर को और मिट्टी की दीवारों को
काम में इतने व्यस्त हुए है खो दिया रविवारों को
पैसे ने सब से दूर किया है फिर खो दिया यारों को
कुएँ सारे सुखा दिये है खो दिया पानी-पनिहारों को
प्रगति की चाह में देखो हमने बीज क्या-क्या बोया है
जब से शहर आया मेरे गाँवोँ में मैंने क्या-क्या खोया है।
नीम की कड़वाहट को खोया, खोया डाल के आमों को
सुबह के सूरज को खोया साथ में खोया डूबती शामों को
महंगाई ने कमर तोड़ दी तो खो दिया सस्ते दामों को
हैवानो की लगी है कतारें खो दिया अच्छे इंसानो को
सूरज पहुँचा बीच गगन में, अभी तक भी सोया है
जब से शहर आया मेरे गाँवोँ में मैंने क्या-क्या खोया है।
आधुनिकता का पहन के चोला खोयी माथे की बिंदिया
पेड़ काटकर घर के सारे, खो दी कोयल और चिड़िया
फोन में कार्टून देखते बच्चे, भूल गये गुड्डो और गुड़िया
बोझ समझ वृद्धाश्रम में छोड़े, घर से बुड्ढे और बुढ़िया
लॉलीपॉप लगे चूसने बच्चे, छोड़ कर चूरन की पुड़िया
ऐसी हालत देख गाँवों की लिखता कलम भी रोया है
जब से शहर आया मेरे गाँवोँ में मैंने क्या-क्या खोया है।
पेन ने जब से ली है जगह, खोया कलम और स्याही को
पक्के सड़के बनी है जब से, खो दिया बाट और राही को
झूठ, कपट, व्यसन में इतने मस्त हुए, भूल गए इलाही को
अपनी कश्ती अपने हाथ, फिर किसने इसको डुबोया है
जब से शहर आया मेरे गाँवोँ में मैंने क्या-क्या खोया है।
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