तीसरे ताँका

 1

प्रेम के बीज

वसुधा पे बिखेरे

घृणा की मात

ऐसे मिट्टी में मिली

ज्यों खरपतवार। 


2

हमारा प्रेम

साथ दौड़ते मार्ग

कभी ना मिलें

परंतु साथ रहे

मीलों तक चुप से। 


3

दूर क्षितिज

धरा नभ मिलन

प्रेम विजित

सूर्य गुस्से में लाल

हो गया बदहाल । 


4

स्नेह-नेत्रों से

चुटकी भर प्रेम

खोजता खग

नभ-नभ भटका

ज्यों कस्तूरी-मृग। 


5

प्रेम संयोग

सदा शाश्वत रहे

ज्यों भोर उषा

प्रतीची भी चमकी

नियमविवर्जित। 


6

प्रेम-वियोग

बची स्मृतियाँ शेष

प्रतिज्ञा टूटी

शरीर जीर्ण-क्षीण

ज्यों अस्थि-अवशेष। 


7

क्यों बैठी प्रिये? 

मुँह फेरें उदास

प्रणय-मास

एक उदास नदी

ज्यों ढूँढ रही सिंधु। 


8

दुःख या सुख

सदा साथ रहे, ज्यों

चाँद-चाँदनी

दुःख साथ काटते

सुख साथ बांटते। 


9

प्रेम में लीन

सदा ऐसे मिले, ज्यों

नदी सिंधु में

पूर्णतयः विलीन

उत्सुक साथ बहे। 


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