मनुष्य की अर्हता
मनुष्य ने खो दी मनुष्य होने की अर्हताएँ- ये अर्हताएँ दब चुकी है एक विशाल पर्वत की तलहटी में- जिस पर्वत की चोटी पर नृत्य कर रहे है क्रोध, इर्ष्या, भय राग-द्वेष और मैं। उस पर्वत की चोटी इतनी अधिक वजनदार हो गयी है- जिसके भार से मनुष्य होने की समस्त अर्हताएँ इतनी नीचे धँस चुकी है जिनको उठाना असंभव प्रतीत होता है।